ओ इंकलाब की अभिनव लय
ओ चिर अतृप्त चिर विद्रोही, ओ इंकलाब की अभिनव लय। वैराग्य-त्याग की विमल मूर्ति, जन-पथ के राही चिर निर्भय।। तुम प्रकटे एक बिम्ब बनकर, इस राजनीति के अम्बर में, दाहक उत्तम सृजनधर्मी, बस क्रान्ति-राग था हर स्वर में। अंगारों से खेले हर दम, आजीवन पीते रहे गरल, शिव स्वयं चकित हो गए देख, कैसी जड़-चेतन में हलचल। ले एक हाथ में गरल, एक में अमृत, पिया बारी-बारी, युग बोल उठा यह क्या? यह क्या? किस महाक्रान्ति की तैयारी? हे आदर्शों के अभय सेतु, बन गए राम के अनुयायी, जीवन भर औघड़ रूप रहे, हे वैरागी ! हे विषपायी। अपने असीम श्रद्धाबल से, हे दृढ़ी। बन गए मृत्युंजय। ओ चिर अतृप्त चिर विद्रोही.............. दोनों कर में अंगार लिए, अन्तर में लेकर सृजन आग, अलमस्त फकीरी जीवन था, आरत जन के भैरवी राग। हे अभिनव विश्वामित्र, नहीं उपमान तुम्हारा मिल सकता, कितनी पीड़ा थी संस्कृति की, कोई अनुमान नहीं सकता। शोषित जन की तुम थे पुकार, दालितों के युग आदर्श बने, अपने प्रचण्ड मेधा बल से तुम सचमुच भारतवर्ष बने, तुमको लखकर आभास हुआ, चाणक्य स्वयं अवतरित हुए, हे यशी तुम्हारी हुंकृति से सब दैन्य भाव भी क्षरित हुए, कामना यही है