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ओ इंकलाब की अभिनव लय

  ओ चिर अतृप्त चिर विद्रोही, ओ इंकलाब की अभिनव लय। वैराग्य-त्याग की विमल मूर्ति, जन-पथ के राही चिर निर्भय।। तुम प्रकटे एक बिम्ब बनकर, इस राजनीति के अम्बर में, दाहक उत्तम सृजनधर्मी, बस क्रान्ति-राग था हर स्वर में। अंगारों से खेले हर दम, आजीवन पीते रहे गरल, शिव स्वयं चकित हो गए देख, कैसी जड़-चेतन में हलचल। ले एक हाथ में गरल, एक में अमृत, पिया बारी-बारी, युग बोल उठा यह क्या? यह क्या? किस महाक्रान्ति की तैयारी? हे आदर्शों के अभय सेतु, बन गए राम के अनुयायी, जीवन भर औघड़ रूप रहे, हे वैरागी ! हे विषपायी। अपने असीम श्रद्धाबल से, हे दृढ़ी। बन गए मृत्युंजय। ओ चिर अतृप्त चिर विद्रोही.............. दोनों कर में अंगार लिए, अन्तर में लेकर सृजन आग, अलमस्त फकीरी जीवन था, आरत जन के भैरवी राग। हे अभिनव विश्वामित्र, नहीं उपमान तुम्हारा मिल सकता, कितनी पीड़ा थी संस्कृति की, कोई अनुमान नहीं सकता। शोषित जन की तुम थे पुकार, दालितों के युग आदर्श बने, अपने प्रचण्ड मेधा बल से तुम सचमुच भारतवर्ष बने, तुमको लखकर आभास हुआ, चाणक्य स्वयं अवतरित हुए, हे यशी तुम्हारी हुंकृति से सब दैन्य भाव भी क्षरित हुए, कामना यही है

ताशकंद समझौते पर

(ताशकंद समझौते के उपरान्त तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मन:स्थिति) उस संधि-पत्र पर हस्ताक्षर, जब जन-नेता ने कर डाला । पावन स्वदेश का पलभर में, उसने इतिहास बदल डाला ।। वह सहमा-सहमा ठगा-ठगा, ताकने निशा में लगा गगन । स्मरण शहीदों का आया, जल उठा लाल का अंतर्मन ।। जो लहू बहा सीमाओं पर, उनको अब कौन सुमन दूँगा ? उनकी पत्नी मॉ बहनों को, बोलो क्या आश्वासन दूँगा ? दूँगा जवाब क्या भारत को, निरवता में ही बोल उठा । सीमा की शोणित बूँदों से, उस संधि पत्र को तोल उठा ।। उलझन के इस चौराहे पर, पीड़ा बढ़ती ही जाती थी । हाँ ! चुपके-चुपके द्रत गति से यह उमर सरकती जाती थी ।। यह अत्याकस्मिक पदाघात, केवल सन्नाटे ने देखा । रवि की किरणों ने ताशकंद में उसकी अर्थी को देखा ।।

विजयादशमी

  इसी दिन राम ने दस शीश रावण को सँहारा था इसी दिन नाम ने आतंक से भू को उबारा था अंधेरे की मिटी सत्ता उजाला मुस्कराया था दनुजता पर मनुजता का विजय-ध्वज फरफराया था। अवधपति राम की जय का बजा था लोक में डंका ढही मीनार शोषण की मिली थी धूल में लंका धरा की सभ्यता में एक नूतन मोड़ आया था कि जनता की पुकारों पर जनार्दन दौड़ आया था । अभी तक लोक में दुर्धर्ष रावण की रही सत्ता बिना जिसके इशारे के न हिलता एक था पत्ता जहाँ में थी न हरियाली तबाही ही तबाही थी मगर यह जुर्म कहने की जमाने में मनाही थी । धरा ही क्या गगन पाताल उससे थरथराते थे वरुण, रवि, इन्द्र, शशि, यम तक पगों में सिर झुकाते थे न उसकी कोई तुलना थी न उसकी कोई सानी थी स्वयं लंकाधिपति के साथ जब दुर्गा भवानी थी । जिधर संकल्प रहता है उधर ही शक्ति रहती है धनुष से शक्तिशाली के विजय की धार बहती है अटल सिद्धांत है जग का न कोई काट सकता है भुवन में शक्तिपूतों का नहीं अभियान रुकता है। इसी बल से दशानन का विजय-रथ घनघनाता था न कोई शूर रावण से कभी आँखें मिलाता था हुआ संग्राम राघव का दशानन से भयंकर था उधर था शक्ति का साधक इधर तो स्वयं ईश्वर था। हुआ जब राम का पौ

राम और रावण

  इस बार रामलीला में राम को देखकर– विशाल पुतले का रावण थोड़ा डोला, फिर गरजकर राम से बोला– ठहरो! बड़ी वीरता दिखाते हो, हर साल अपनी कमान ताने चले आते हो! शर्म नहीं आती, कागज़ के पुतले पर तीर चलाते हो। मैं पूछता हूं क्या मारने के लिए केवल हमीं हैं या तुम्हारे इस देश में ज़िंदा रावणों की कमी है? प्रभो, आप जानते हैं कि मैंने अपना रूप कभी नहीं छिपाया है जैसा भीतर से था वैसा ही तुमने बाहर से पाया है। आज तुम्हारे देश के ब्रम्हचारी, बंदूके बनाते–बनाते हो गए हैं दुराचारी। तुम्हारे देश के सदाचारी, आज हो रहे हैं व्याभिचारी। यही है तुम्हारा देश! जिसकी रक्षा के लिए तुम हर साल कमान ताने चले आते हो? आज तुम्हारे देश में विभीषणों की कृपा से जूतों दाल बट रही है। और सूपनखा की जगह सीता की नाक कट रही है। प्रभो, आप जानते हैं कि मेरा एक भाई कुंभकरण था, जो छह महीने में एक बार जागता था। पर तुम्हारे देश के ये नेता रूपी कुंभकरण पांच बरस में एक बार जागते हैं। तुम्हारे देश का सुग्रीव बन गया है तनखैया, और जो भी केवट हैं वो डुबो रहे हैं देश की बीच धार में नैया। प्रभोॐ अब तुम्हारे देश में कैकेयी के कारण दशरथ को नहीं मरना

कवि का संकल्प

  घात के प्रतिघात के फण पर सदा चलता रहूंगा किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूंगा मृत्युंजयी हूँ है मुझे अमरत्व का वरदान शाश्वत युग युगांतर तक बनेंगे अमर मेरे गान शाश्वत एक अंतर्द्वंद्व शेष है जो कह न पाया मनुज काया का अभी कर गूढ़ता भेदन न पाया यह अनिश्चित प्रश्नवाचक चिह्न सी कब से खड़ी है निःसारता ही सार इसका भेद यह मैं जानता हूँ किन्तु मैं तो साधना की वह्नि में तपता रहूंगा किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूंगा